लेख- देवराज दीपक..🖋️
सारंगढ़-बिलाईगढ़।
तालाबों से घिरा, घने जंगलों से आच्छादित और आस्था से आलोकित — बरमकेला केवल एक नगर पंचायत नहीं, बल्कि इतिहास, प्रकृति और धर्म की त्रिवेणी है। समय के साथ चाहे नगर ने आधुनिकता की दिशा पकड़ी हो, पर इसके मूल में बसी सांस्कृतिक विरासत आज भी इसकी पहचान है।
🟢 बरमकेला – घने जंगलों का मुकुट
बरमकेला के चारों ओर फैला घना जंगल क्षेत्र इसे प्राकृतिक रूप से समृद्ध बनाता है। यहाँ का वन क्षेत्र न केवल जैव विविधता के लिए महत्त्वपूर्ण है, बल्कि यह बरमकेला की जीवनरेखा भी है। यह क्षेत्र वन्यजीव प्रेमियों और पर्यावरणविदों के लिए शोध का विषय बनता जा रहा है। यही जंगल कभी राजा-महाराजाओं के शिकार क्षेत्र हुआ करते थे और आज यह “बरमकेला के मुकुट” की संज्ञा प्राप्त कर चुका है।
🏰 इतिहास: कभी सम्बलपुर रियासत का हिस्सा
इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि बरमकेला कभी ओडिशा की प्रसिद्ध सम्बलपुर रियासत का हिस्सा था। रियासतकालीन शासन व्यवस्था, व्यापारिक मार्गों और पड़ाव स्थलों की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद महत्त्वपूर्ण था।
बाद में यह सारंगढ़ रियासत से जुड़ता चला गया और समय के साथ एक प्रशासनिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ।
🌾 बरमकेला – एक कृषि प्रधान अंचल की पहचान 🌿
बरमकेला न सिर्फ अपने इतिहास और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है, बल्कि यह क्षेत्र अपनी कृषि परंपरा के लिए भी विशेष महत्व रखता है। यहाँ की अधिकांश आबादी की जीविका का मुख्य आधार खेती है।बरमकेला की मिट्टी उपजाऊ है और यहाँ की जलवायु धान, गेहूँ, चना, मक्का जैसी प्रमुख फसलों की खेती के लिए बेहद अनुकूल मानी जाती है। खेतों में हर मौसम में हरियाली की चादर बिछी रहती है, जो गाँव के जीवन में रौनक घोल देती है।यहाँ के किसान मेहनती और आत्मनिर्भर हैं। परंपरागत कृषि के साथ अब आधुनिक कृषि यंत्रों का भी उपयोग बढ़ रहा है। सिंचाई के लिए तालाब, नहर और बोरवेल की व्यवस्था है, जिससे खेती को मजबूती मिलती है।खेती के अलावा पशुपालन, सब्ज़ी उत्पादन और मछली पालन भी आमदनी के महत्वपूर्ण साधन हैं। इन सबके मेल से बरमकेला की अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत बना हुआ है।बरमकेला सचमुच एक ऐसा इलाका है, जहां कृषि सिर्फ व्यवसाय नहीं, बल्कि जीवन जीने की संस्कृति है।
🔱 चारों दिशाओं में आस्था का आलोक
बरमकेला की भौगोलिक स्थिति इसे चारों दिशाओं में धार्मिक स्थलों से जोड़ती है:
🧭 पूर्व दिशा:
यहाँ अम्बाभोना केदारनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर स्थित है — यह स्थान केवल धार्मिक आस्था का केंद्र नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ और ओडिशा सीमा क्षेत्र की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।
🧭 उत्तर दिशा:
नाथालदाई मंदिर — यह प्राचीन शक्ति पीठों में गिना जाता है, जहाँ श्रद्धालु बड़ी संख्या में दर्शन हेतु पहुंचते हैं।
🧭 पश्चिम दिशा:
यहाँ माँ दुर्गा मंदिर स्थित है, जो ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आस्था का प्रमुख केंद्र है।
🏠 बरमकेला बस्ती के भीतर:
यहाँ श्री जगन्नाथ मंदिर स्थित है, जो ओडिशा की सांस्कृतिक छाप को दर्शाता है। हर वर्ष रथयात्रा के अवसर पर यहाँ भव्य आयोजन होता है।
💧 तालाबों से सजी ऐतिहासिक माटी
बरमकेला के अनेक पुराने तालाब न केवल जलस्रोत हैं, बल्कि इतिहास के जीवंत गवाह भी हैं। इन तालाबों के किनारे बसे मंदिर, अखाड़े, बस्ती आज भी स्थानीय लोकजीवन का हिस्सा हैं। यहाँ की जल परंपरा और पारंपरिक जल संरक्षण प्रणाली आज भी शोध का विषय है।
बरमकेला का बड़ा तालाब, पलायन की कथा और आदिवासी विरासत
बरमकेला की धरती पर रियासत काल में निर्मित बड़ा तालाब केवल जलाशय नहीं, बल्कि यहां के इतिहास का गवाह है। तालाब के किनारे ही कभी पुराना बरमकेला आबाद था। यही वह गांव था जहां जीवन अपनी सहज गति से बहता था—खुशियों, रिवाज़ों और श्रम में रमा हुआ।
बहुत पहले यहां आदिवासी समाज का एक गौटिया (ग्राम प्रमुख) हुआ करता था। उसकी छत्रछाया में गांव के लोग अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों का पालन करते थे। आदिवासी समुदाय की संस्कृति में प्रकृति के प्रति गहरी आस्था थी। त्योहार, अनुष्ठान और महुआ पेड़ों की छांव में होने वाली पंचायतें गांव की आत्मा में रची-बसी थीं।
फिर लगभग 200 साल पहले, गांव पर हैजा की महामारी टूटी। यह बीमारी देखते ही देखते विकराल हो उठी। रोज़ दर्जनों लोगों की मृत्यु होने लगी। चारों ओर चीख-पुकार और मातम का वातावरण बन गया। अंततः गांव के लोग अपनी जमीन, अपने पूर्वजों की स्मृतियां और अपने देवस्थल पीछे छोड़कर यहां से पलायन करने को विवश हुए।
उन्होंने वर्तमान बरमकेला की भूमि को नया ठिकाना बनाया। धीरे-धीरे वहां घर बने, बाजार बसे और जीवन ने फिर से गति पकड़ी। लेकिन आज भी पुराने बरमकेला की स्मृतियां मिट्टी में महकती हैं।
वर्तमान बरमकेला में हॉस्टल पारा के पीछे मौलीखार नाम की जगह है। यहां विशाल और बेहद पुराने महुआ के पेड़ खड़े हैं। इन पेड़ों की शाखाएं आपस में इस तरह जुड़ी हुई हैं कि किसी अलौकिक शक्ति का आभास होता है। इन वृक्षों की छांव में खड़े होकर जब हवा चलती है, तो लगता है जैसे पुराने आदिवासी गौटिया की वाणी अब भी वहां गूंज रही हो—गांव के लोगों को उनकी जड़ों से जोड़ती हुई।
बरमकेला का बड़ा तालाब, मौलीखार का रहस्य और आदिवासी संस्कृति—यह सब मिलकर इस भूभाग को एक ऐसी विरासत बनाते हैं, जो समय बीतने पर भी मिटती नहीं, बल्कि और गहराई से हमारे मन में उतरती जाती है।